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वह॑ व॒पां जा॑तवेदः पि॒तृभ्यो॒ यत्रै॑ना॒न् वेत्थ॒ निहि॑तान् परा॒के। मेद॑सः कु॒ल्याऽ उप॒ तान्त्स्र॑वन्तु स॒त्याऽ ए॑षामा॒शिषः॒ सं न॑मन्ता॒ स्वाहा॑ ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वह॑। व॒पाम्। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। यत्र॑। ए॒ना॒न्। वेत्थ॑। निहि॑ता॒निति॒ निऽहि॑तान्। प॒रा॒के ॥ मेद॑सः। कु॒ल्याः। उप॑। तान्। स्र॒व॒न्तु॒। स॒त्याः। ए॒षा॒म्। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽऽशिषः॑। सम्। न॒म॒न्ता॒म्। स्वाहा॑ ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:35» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पितृ लोगों का सेवन विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जातवेदः) उत्तम ज्ञान को प्राप्त हुए जन आप (यत्र) जहाँ (एनान्) इन (पराके) दूर (निहितान्) स्थित पितृजनों को (वेत्थ) जानते हो, वहाँ (पितृभ्यः) जनक वा विद्या शिक्षा देनेवाले सज्जन पितरों से (वपाम्) खेती होने के योग्य भूमि को (वह) प्राप्त हूजिये, जैसे (मेदसः) उत्तम (कुल्याः) जल के प्रवाह से युक्त नदी वा नहरें (तान्) उन सज्जनों को (उप, स्रवन्तु) निकट प्राप्त हों, वैसे (स्वाहा) सत्यक्रिया से (एषाम्) इन लोगों की (आशिषः) इच्छा (सत्याः) यथार्थ (सम्, नमन्ताम्) सम्यक् प्राप्त होवें ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो दूर रहनेवाले पितृ और विद्वानों को बुलाकर सत्कार करते हैं, जैसे बाग-बगीचों के वृक्षादि को जल, वायु बढ़ाते, वैसे उनकी इच्छा सत्य हुर्इं सब ओर से बढ़ती हैं ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ पितृसेवनविषयमाह ॥

अन्वय:

(वह) प्राप्नुहि (वपाम्) वपन्ति यस्यां भूमौ ताम् (जातवेदः) जातप्रज्ञानः (पितृभ्यः) जनकेभ्यो विद्याशिक्षादातृभ्यो वा (यत्र) (एनान्) (वेत्थ) जानासि (निहितान्) (पराके) दूरे (मेदसः) स्निग्धाः (कुल्याः) जलप्रवाहाधाराः (उप) (तान्) जनान् (स्रवन्तु) प्राप्नुवन्तु (सत्याः) सत्सु साध्व्यः (एषाम्) (आशिषः) इच्छा (सम्) सम्यक् (नमन्ताम्) प्राप्नुवन्तु (स्वाहा) सत्यया क्रियया ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जातवेदस्त्वं यत्रैतान् पराके निहितान् वेत्थ, तत्र पितृभ्यो वपां वह, यथा मेदसः कुल्यास्तानुपस्रवन्तु, तथा स्वाहैषामाशिषः सत्याः सन्नमन्ताम् ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये दूरे स्थितान् पितॄन् विदुषश्चाहूय सत्कुर्वन्ति, यथाऽऽरामवृक्षादीन् जलवायू वर्द्धयतस्तथैतेषामिच्छाः सत्याः सत्यः सर्वतो वर्द्धन्ते ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे (विद्वान) लोक दूर राहणाऱ्या पितरांना व विद्वानांना आमंत्रित करून त्यांचा सत्कार करतात व ज्याप्रमाणे बागबगीचातील वृक्ष, जल व वायूमुळे वाढतात तशा त्यांच्या (विद्वानांच्या) इच्छा फलद्रूप होतात.